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कविता संग्रह

प्रतीक्षा

रमेश पोखरियाल निशंक


प्रतीक्षा

(खंडकाव्य)

रमेश पोखरियाल 'निशंक'

विनसर पब्लिशिंग कं०

देहरादून-उत्तराखंड

 

 

प्रकाशक :

विनसर पब्लिशिंग कं०

8, प्रथम तल, के.सी. सेंटर

4, डिस्पेंसरी रोड, देहरादून - 248 001

Website: www.winsar.org

Email :winsar.nawani@gmail.com

ISBN : 81-86844-25-2

संस्करण : 2005

आवृत्ति, 2008, 2015

 

 

प्रतीक्षा

 

'क्रांति पर्व है आज उधर,

कौन यहाँ दु:ख शांत करेगा ?

सूर्य किरण सा कब सुत मेरा,

देहरी पर आलोक भरेगा ॥'

(क्रांति पर्व-1)

ये सरस, सुंदर एवं उपमान भरी पंक्तियाँ हैं- हिंदी काव्य जगत के उदीयमान नक्षत्र एवं हिमालय के वरद् युवा कवि रमेश पोखरियाल 'निशंक' विरचित 'प्रतीक्षा' खंडकाव्य की । वस्तुतः कवि एवं काव्य स्वयं मेँ एक विलक्षणता है । सत्यं-शिवं-सुंदरं की भावना से जीवंत कवि 'निशंक' सदा ही अपनी प्रतिभा, निपुणता तथा काव्याभ्यास का उपयोग यश, मंगल, विश्व बंधुत्व, सामाजिक संवर्धन तथा प्रकृति हित मेँ करते आये हैं । नि:संदेह उन्मुक्त स्वभाव के धनी कवि निशंक बाल्यावस्था से ही कविता-कामिनी का सौहार्द प्राप्त किये हुए हैं । अब तक उनकी चौदह कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं । इनमें 'प्रतीक्षा' अतिविशिष्ट, महत्वपूर्ण एवं प्रौढ़ नवोदित वर्तमान रचना है ।

'प्रतीक्षा' स्त्रीलिंगवाची सापेक्षित शब्द है । इसका शाब्दिक अर्थ है प्रतीक्षा या इंतजार करना । 'प्रति' उपसर्ग 'ईक्ष' धातु से 'अङ' तथा 'टाप्' प्रत्यय का विधान होने पर 'प्रतीक्षा' की व्युत्पत्ति उपलब्ध होती है । यह खंड काव्य स्मृति, क्रांति तथा भविष्य इन तीनों पर्वों मेँ विभक्त है । इसकी विषय वस्तु हिमालय के अंचल मेँ बसे ग्रामीण (पहाड़ी) परिवेश से सम्बद्ध है, जिसमें पितृ-विहीन सुत की माता देश सेवा (सेना) में रत अपने पुत्र की आद्यतन प्रतीक्षा में जीवन की अंतिम घड़ियाँ तक बिता देती हैं किंतु विधिवश सुत-दर्शन सुलभ नहीं हो पाता । माँ की यही करूँ अभिलाषा बड़े ही रोचक तथा मनोहारी ढंग से कवि द्वारा उदस्यूत है-

'मरते दम तक भी माता के,

मन-मयूर ने चैन न पाया ।

हाय तरसती प्यासी आँखें,

किन्तु तनय घर पहुँच न पाया ॥'

(भविष्य पर्व-93)

कवि 'निशंक' का स्वतंत्र लेखन एवं चिंतन, विशिष्ट संस्कार, काव्य-क्रिया में कुशलता, लोक ज्ञान और लोक व्यवहार श्रेष्ठता के वाचक हैं । उनकी कोमलकांत पदावली यथार्थ की अनुगामी होते हुए भी छायावाद के प्रभाव से सर्वथा मुक्त नहीं है क्योकि यथार्थानुभूति में प्रतिबिंबित भी सहगामी होता है -

'कहाँ लोरियां हैं वो मेरी,

क्यों न उसे बुलाती हैं ।

भूलूँ कितनी यादों को मैं,

रह-रह मुझे रुलाती हैं ।'

(स्मृति पर्व-66)

काव्य-विन्यास में नूतन आयामों का स्थापन कवि का आदर्श है । ग्रामीण परिवेश को अवतरित करने में कवि ने बड़ी सादगी और ईमानदारी से दुरूह एवं गूढ भावों से हटकर विषय वस्तु का सहृदयीकरण करने में महारत हासिल की है । वे गाँव की उन सभी विषम परिस्थितियों से भी सुपरिचित हैं, जिसमें केवल पुरुष ही नहीं बल्कि बेसहारा नारियाँ भी पुरूषार्थिनी बनकर अपने हौसले बुलंद किये हुए हैं-

'और सोचती, याद मुझे है,

मर्द स्वयं जब बनती थी ।

ताने सुन-सुनकर लोगों के,

मेरी भृकुटी तनती थी ॥'

(भविष्य पर्व-21)

काव्य चतुष्टय (प्रयोजन, अधिकारी, संबंध और विषय वस्तु) के संवरण के साथ ही साथ काव्य मानकों का कवि ने बखूबी प्रयोग किया है । रस, गुण, छंद, अलंकार और रीतियों की छटा बिखेरने में भी कवि पीछे नहीं हैं । रूपक का बड़ा ही सुंदर अंकन काव्य में आया है । -

'और न चिंता है अब मुझको,

केवल उसका घर बस जाये ।

अब तक के इस सूनेपन में,

हंसमुख एक वधू घर आये ॥'

(क्रांति पर्व - 50 )

कवि का अंतस्थ शब्दार्थ गुंफन एवं काव्य शास्त्रीय मानकों के उपयोग में रस, छंद, गुण, रीति एवं अलंकार का हिमायती तथा दोषों का अपकारक होने पर भी मूल भावों के उन्नयन में जहां भी आवश्यक हुआ कवि ने शिथिलता बरतने का भी प्रयास किया है । यह प्रवृत्ति उनके पूर्व काव्य-विन्यासों में भी देखने को मिलती है । कवि द्वारा मन को अभिभूत कर देने वाली अद्भुत एवं विलक्षण शब्द शक्तियों का निरूपण तथा प्रयुक्त व्यंग्य एवं व्यंजक वर्तमान उजाड़ होते हुए ग्रामीण परिवेश को उजागर करने मेन पूर्णतः सक्षम हैं -

'अब तो नन्हीं किलकारी गुम,

कहीं शेष बूढ़ी लाठी ।

गाँव-गाँव वीरान पड़े हैं,

रोती धरती है माटी ॥ '

(स्मृति पर्व-39)

ग्रामीण अंचल से सीधा संबंध रखने वाले कवि 'निशंक' ने यह अनुभव किया है कि अभावग्रस्त पहाड़ी ग्रामीण महिलायें अहर्निश विकत जीवन जी रही हैं, किंतु उनकी अद्भुत कर्मण्यता में कहीं भी च्युतता नहीं है । ऋतुओं का आवागमन भी उनकी इस प्रवृति से संवलित हो जाता है । इसी यथार्थ को कवि ने शिशिर ऋतु की बर्फीली चर्या मेन देखा है-

'तुहिन राशि में घास फूस क्या,

दूर कहीं से पानी लाती ।

शिशिर ऋतु की शीत लहर भी,

धैर्य ना मेरा खो पाती ॥'

(क्रांति पर्व - 40 )

गाँवों का निरंतर बिगड़ता पर्यावरण, भूगर्भीय हलचल, प्रलयंकारी विनाश, निरंतर कटते वृक्ष एवं अग्नि से नष्ट होती वन संपदा, पीड़ित पशु-पक्षी, सूखते जल स्रोत, परिणामतः वीरान होती धरती, नष्ट होती हरियाली एवं साग-भाजियाँ, अकुलाते हुए लोग और विलुप्त होती घर-आँगन की तुलसी कवि का मोहक दर्द बनकर उभरी है-

'जाने किसने आग लगायी,

तरु-शाखाएँ हैं झुलसी ।

बिन पानी के साग-पात क्या,

न घर-आँगन में अब तुलसी ॥'

(स्मृति पर्व-33)

वात्सल्य निरूपण में कवि उस दिशा की ओर बढ़ चले हैं, जहां से श्रेष्ठ कवियों का पंथ तथा राष्ट्रीय-गौरव का मान सुलभ होता है । कवि ने वस्तुतः यह महसूस किया है कि ममता एवं वात्सल्य प्लावित एवं माँ अपने पुत्र की प्रतीक्षा में कितनी उत्सुक, व्याकुल, एकटक और निरत हो उठती है कि एक-एक पल गुजारना भी वर्षों जैसा तथा दिन-प्रतिदिन की स्थिति एवं गणना तो सदियों को तरने जैसे हो जाती है-

'हाथ लिए पत्थर का टुकड़ा,

वह चौखट पर गणना करती ।

एक-एक रेखा को खींचे,

जैसे एक सदी को तरती ॥'

(स्मृति पर्व-52)

सरस भावों की चर्वणा में कवि की दृष्टि सर्वथा अलौकिक तथा महाकवियों की अनुयायी है, जहां जड़ और चेतन का भेद भी मिट जाता है । फिर मनुष्य और प्रकृति के दूसरे चेतन प्राणियों का तो कहना ही क्या । प्रकृति के मानवीयकरण की यही भावना वृदधा माँ और चींटी के सुंदर वार्तालाप के प्रसंग में उद्भूत हुई है -

'दीवारों पर चढ़ती चींटी,

देख उसी से बातें करती ।

दीपू ने अब याद किया है,

कहकर लंबी श्वासें भरती ॥'

(स्मृति पर्व-53)

अन्यत्र सुंदर उत्प्रेक्षा उक्तियों को अपनी काव्य प्रतिभा का बिम्ब बनाते हुए कवि ने अपना श्रेष्ठ कवित्व सिद्ध किया है । इस दीर्घा में माँ की पुत्र वियोगोत्थ अन्तःस्थिति की आश को सुई की नोंक पर लटकती हुई विकत स्थिति से इंगित किया है-

माँ की ममता देखो कैसी,

व्याकुल होकर भटक रही है ।

बूंद आश की नोक सुई पर,

जैसे देखो लटक रही है ॥

(स्मृति पर्व-46)

आश और सुई की नोक के मिलन जैसी विलक्षण विकटता को परस्पर मिला देने की सामर्थ्य रखने वाले कवि निशंक प्रमुखता से काव्य में रस के हिमायती रहे हैं । उत्साह एवं वीर रस की विषद् उद्भावना में कवि ने न केवल पुरुषों अपितु बेसहारा ग्रामीण महिलाओं के विशिष्ट योगदान की भी सराहना की है । प्रतीक्षा खंडकाव्य में यही भाव स्त्री पात्र के वीरता परक उत्साह-कृत्यों के माध्यम से उद्गमित हुआ है-

'कष्ट निखित तुम विस्मृत कर,

नया इतिहास बना डालो ।

तोड़ विवशताओं के घेरे,

बढ़ो चलो जीवन पाओ ॥'

(भविष्य पर्व - 32 )

भयानक रस की पृष्ठभूमि में कवि ने युद्ध जैसी विभीषिका को प्रस्तुत कर नील गगन और प्रलय को भी हैरत में डाल देने का दृश्य उपस्थित किया है-

गूंज मौत की सुन-सुनकर,

नील गगन भी घुटा-घुटा ।

दृश्य भयावह देख प्रलय भी,

मानो थर-थर काँप उठा ॥

(क्रांति पर्व - 10 )

कवि की दृष्टि में युद्ध मानव के लिए एक क्रूर अभिशाप है, जिसके दुष्प्रभाव से प्रकृति भी अछूती नहीं रह पाती । नील गगन तथा प्रलय को भी इससे त्रासित होते हुए दिखाया गया है । युद्ध का दृश्य जहां वीर, भयानक और अद्भुत जैसे रसों की सृष्टि करता है, वहीं युद्धभूमि में वीभत्स की यथार्थ अवधारणा में कवि ने अंतः को द्रवीभूत कर देने की सामर्थ्य भी हासिल की है-

कोई आहत तड़प रहा तो,

कहीं हाथ कहीं पांव ।

मुँह खोले कोई जल माँगे,

नहीं दूर तक छांव कहीं ॥

(क्रांति पर्व - 13)

राष्ट्र तथा देश के प्रति भक्ति भाव कवि का आदर्श रहा है । उनके सभी काव्यों में यह भावना तीव्रतम होकर उभरी है । जननी और जन्मभूमि की श्रेष्ठता व्यक्त की गयी है । एक वीर यशस्विनी माता अपने पुत्र की जियावान की सार्थकता में सदा ही मातृभूमि की सेवा एवं रक्षा को प्रश्रय देती आयी है -

'हे ईश्वर मेरे दीपू को

परम शक्तिशाली कर दो ।

रहे देश सेवा में तत्पर

ममता भी मन में भर दो ॥'

(स्मृति पर्व-4)

गुण, रस के अङीधर्म तथा प्रतिमूर्ति हैं । प्रतीक्षा खंड काव्य मेन यद्यपि माधुर्य, प्रसाद और ओज इन तीनों गुणों का कवि ने बखूबी प्रयोग किया है, किंतु माधुर्य गुण और वैदर्भी विशिष्ट रूप से उपलक्षित हैं । माधुर्य-व्यंजक वर्णों की ललित पदावली मन को इस कदर मोह लेती है कि आनंदानुभूति और रस चर्वणा के अतिरिक्त अन्य सब कुछ लुप्त प्रायः सा हो जाता है-

'पथरीली राहों में चलकर,

माँ ने आस सँजोयी थी ।

सुख के दीप जलेंगे घर में,

सपनों में वह खोयी थी ॥'

(स्मृति पर्व-2)

विश्व-क्षितिज पर शांति की गुहार कवि की आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित है । वे विश्व बंधुत्व की भावना से ओत-प्रोत हैं । उनकी दृष्टि में सृष्टि के सारे प्राणी एक दूसरे के पूरक तथा सहगामी हैं । फिर मानव का मानव के साथ धर्म, जाती आदि के द्वारा किया गया विभेद का अस्तित्व कहाँ । कोई भी उन्हें परमार्थतः एक दूसरे से अलग नहीं कर सकता । समाज में यदि ऐसा विघटन होता है, तो वह त्याज्य, निंदनीय एवं दुराग्रहपूर्ण है । अब समय आ गया है कि हम इस कुत्सा से मुक्त हों-

'कौन धर्म कहता है लड़कर,

मंदिर-मस्जिद को खोओ।

शस्त्रहीन पर वार करो,

षड्यंत्र करो विश को बोओ॥'

(भविष्य पर्व-1)

वस्तुतः कवि समाज का दर्पण होता है । यही कारण है कि एक अच्छे काव्य में समाज का प्रतिबिंब झलकता है । 'प्रतीक्षा' खंडकाव्य में पहाड़ी ग्रामीण समाज एवं संस्कृति की यथार्थानुभूति के माध्यम से भारतीय हिंदी काव्य जगत के क्षितिज पर भाषित एवं स्थापित होने का जो गौरव कवि निशंक ने प्राप्त किया है , निश्चित ही वह श्लाघा और राष्ट्रीयता की दिशा में सराहनीय कदम है । संस्कृति तथा समदर्शिता के उपासक कवि निशंक जहां एक ओर स्वाभाविक प्रकृति प्रेम से आबद्ध हैं वहीं दूसरी ओर उनमें विश्व बंधुत्व की उदीप्त भावना, मानव की प्रेरणा ज्योति बनकर उभर आई है । राजनीतिक व्यस्तताओं में भी निष्णात् कवि निशंक लोक ज्ञान, लोक व्यवहार तथा काव्य मानदंडो से लेकर जननी एवं जन्मभूमि के लिए समर्पित प्रतिभा से संपन्न राष्ट्रीय कवियों की श्रेणी में हैं ।

-डॉ. एम.एल. जुगरान

विभागाध्यक्ष

हे.न.ब. गढ़वाल विश्वविद्यालय

स्वामी रामतीर्थ परिसर, बादशाही थौल

नई टिहरी (टिहरी गढ़वाल)

 

काव्यक्रम

1. आराधना

2. क्रांति-पर्व

3. स्मृति-पर्व

4. भविष्य-पर्व

आराधना

जिसने जीवन दान दिया

जो स्वयं बनीं पावन धारा ।

सहे थपेड़े लाख सही पर

कभी नहीं था मन हारा ॥

आज उसी की पूजा करने, आकुल-सा है यह जीवन ।

सर्वस्व समर्पित करने उसको, ललक रहा है मेरा मन ॥

हर श्वांस उसी की छाँवों में-

रख, सोता हूँ जगता हूँ ।

ध्यान उसी माता का हाँ! अब,

मैं निज मन में रखता हूँ ॥

जिसने संघर्षों में तपकर, दिव्य बनाया था जीवन ।

ऐसी जननी-जन्मभूमि को, अर्पित मेरा तन-मन-धन ॥

एक दिवस माँ सरस्वती का

मैंने कर आराधन ।

शुरू किया कविता रचना

ले कलम और मसि साधन ॥

तीन पर्व में खंड काव्य का, कथा सृजी फिर मैंने।

सोचा पुष्पित हो पदशय्या, चुभें न कंटक पैनें ॥

फिर भी दोष दिखे यदि कोई

हलुवे में कंकर-सा ।

क्षमा करें कवि को कोविद जन,

वृषारूढ़ शंकर-सा ॥

इसमें कथा गई है बोई, पर्वतीय नारी की ।

श्रमजल से जो होती सिंचित, अभिनंदित क्यारी की ॥

कष्टकटंकित जीवनतरु पर

है जो फूल खिलाती ।

जो कि यशोदा बनी-

देवकी-सुत को दूध पिलाती ॥

ऐसी वीरप्रसू माता के

सुत की है यह गाथा ।

देकर निज बलिदान-

मातृ-भू का उन्नत कर माथा ॥

चला गया जो, किन्तु अभी भी, बात जोहती माता!

वृद्धा देख रही निज सुत को, है गिरिपथ पर आता!

खुली हुई हैं आँखें उसकी

किसी प्रतीक्षा में?

उड़ता उसका प्राण पखेरू

किसकी अन्वीक्षा में?

 

***

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[अन्वीक्षा : दार्शनिक तत्त्वों (आत्मा-परमात्मा, जीव-जगत, ब्रह्म-माया) आदि के चिंतन को कहते हैं।]

 

स्मृति-पर्व

एक कहानी न जाने क्यों,

रह-रह मन में आती ।

एक वीर प्रसू माता की,

व्यथा मुझे अकुलाती है ॥

पथरीली राहों में चलकर,

माँ ने आस सँजोयी थी ।

सुख के दीप जलेंगे घर में,

सपनों में वह खोयी थी ॥

रोजी-रोटी की खातिर कब,

बेटा घर से जाएगा ।

कहाँ मिलेगी मंजिल उसको

क्या कोई बतलाएगा ?

हे ईश्वर मेरे दीपू को

परम शक्तिशाली कर दो ।

रहे देश सेवा में तत्पर

ममता भी मन में भर दो ॥

अरमानों को कुचल न देना,

हे प्रभु इतना तो सुन लो ।

बेटा वीर बने मेरा

फिर मुझको जितना दु:ख दो ॥

दिल्ली से मगनू चाचा भी,

तब ही छुट्टी आए थे ।

वृद्धा माँ ने व्याकुल मन से,

अपने कष्ट सुनाये थे ॥

भावों में भरकर तब,

माँ दुखियारी रोई थी ।

ले जाओ संग मेरे सुत को,

सुध-बुध अपनी खोई थी ॥

माँ की पीड़ा सुनकर चाचा,

आँखों में आँसू भर लाये ।

पर दीपू को ले जाने से,

मन ही मन वे सकुचाये ॥

छुट्टी पूरी कर चाचा जब,

जाने को तैयार हुए ।

साथ चला दीपू चाचा के,

माता के थे पैर छूए ॥

जाते ही तुम चिट्ठी लिखना,

माँ ने सुत को समझाया ।

माथा चूमा रुंधे कंठ से,

उसको उर से चिपकाया ॥

दिल्ली में दीपू को जब-जब,

माँ की याद सताती थी ।

सपनों में माता की लोरी,

उसको पास बुलाती थी ॥

उधर व्यथित दीपू होता,

तो इधर दु:खी माता होती ।

नयन युगल में आँसू होते,

स्मृति पुंज में जा खोती ॥

कैसा होगा दीपू मेरा,

व्याकुल मन से कहती थी ।

आँखों में आँसू की धारा,

उसकी अविरल बहती थी ॥

किसी तरह चाचा ने उसको,

दिल्ली कहीं लगाया था ।

पर दुखियारी माँ की खातिर,

उसका मन अकुलाया था ॥

मानस में था चैन कहाँ,

वह धैर्य कहाँ रख पाता था ।

देश की सेवा में रत रहने,

हर क्षण छटपटाता था ॥

काम न जंचता उसको कोई,

कहीं नहीं यह मन लगता ।

खोया-खोया सा जाता दिन,

रात-रात भर वह जगता ॥

कभी इधर तो कभी उधर

दौड़ भाग वह करता था ।

जीवन व्यर्थ चला जाये ना,

यही सोच कर डरता था ॥

वीर सपूतों की गाथा,

मन-मन गुनगुनाता था ।

मातृभूमि की देख दशा,

दिल में विस्फोट हो आता था ॥

सदा सोचता कैसे करके,

सेवा का अवसर आएगा ।

सीमा पर अपने दुश्मन को,

कैसे धूल चटायेगा ॥

वीर सपूतों का वंशज हूँ,

अरिमर्दन का प्रण किया है ।

अपना तन-मन न्यौछावर

करने को मैंने जन्म लिया है ॥

स्वाभिमान से अर्पण का क्षण,

यदि किंचित भी मिल जाये ।

हो जाऊँ कुर्बान अगर तो,

जीवन पुष्प ही खिल जाये ॥

तभी डाकिया चिट्ठी लेकर,

दीपू के घर आता है ।

चिट्ठी दीपू की लाया हूँ,

माँ को खबर सुनाता है ॥

कुशल पत्र अब ले दीपू का,

माँ ने दिल से चिपकाया ।

ममता मूरत माँ का पावन,

मन मयूर अति हर्षाया ॥

कभी चूमती मिट्टी को वह,

कभी प्यार से सहलाती ।

सम्मुख हो उस बेटा उसके,

देख-देख मन बहलाती ।।

जिसकी खुशियों की खातिर,

मैंने सारा सुख छोड़ा।

आज उसी की चिट्ठी सुनने,

के क्षण ने था मुख मोड़ा ॥

भैया चिट्ठी तुम ही पढ़ दो,

माँ की ममता सिसक पड़ी ।

क्या लिखता है दीपू मेरा,

आतुर थी वह खड़ी-खड़ी ॥

माँ तेरी चरणों की रज से,

मुझको यह सौभाग्य मिला ।

सेना में भर्ती होने पर,

जैसे जीवन पुष्प खिला ॥

मातृभूमि की सेवा का,

अब अवसर मिल जायेगा ।

देश की खातिर तेरा बेटा,

अब कर्तव्य निभायेगा ॥

कुछ ही दिन में तेरा दीपू,

छुट्टी ले घर आयेगा ।

तब से अब तक बीता जो भी,

सारा हाल सुनायेगा ॥

यह सुनते ही माँ दुर्गा के,

मंदिर में थी दौड़ पड़ी ।

नतमस्तक हो गदगद मन से,

नयनों में थी अश्रु-झड़ी ।।

फिर पत्रोत्तर दे बेटे को,

माँ ने हाल सुनाया था ।

जब से तुम परदेश गये हो,

पलभर चैन न पाया था ॥

धरती है वीरान गाँव की,

पतझड़ सा मौसम आया ।

जीव-जन्तु पानी को तरसे,

जन-जन बेटा अकुलाया ॥

जाने किसने आग लगायी,

तरु-शाखाएँ हैं झुलसी ।

बिन पानी के साग-पात क्या,

न घर-आँगन में अब तुलसी ॥

अब तक थे जो सघन विपिन,

सुत! वो हर पल कटते हैं ।

नहीं समय पर वर्षा होती,

पशु-पक्षी भी घटते हैं ॥

कभी बरसते मेघ भयावह,

धरती पग-पग है धँसती ।

शस्यपूर्ण स्वर्णिम कृषि को,

चक्रवात नागिन डँसती ॥

अभी सुना होगा तुमने,

भूकंप भयावह आया था ।

प्रलय मचा था गाँव-गाँव में,

मौत का तांडव छाया था ॥

उस काल रात में बेटा जब,

सब गहरी नींद में सोये थे ।

धरती पल में शमशान हुई,

सब देख बिलख कर रोये थे ॥

कहाँ रहे वे ग्राम निलय अब,

तरुण जवानी कहाँ रही ।

कहाँ गये वो बाग-बगीचे,

मोहक हरियाली कहाँ गई ॥

अब तो नन्हीं किलकारी गुम,

कहीं शेष बूढ़ी लाठी ।

गाँव-गाँव वीरान पड़े हैं,

रोती धरती है माटी ॥

रोजगार पाने को जो भी,

गाँव छोड़कर जाता है ।

जन्मभूमि की ममता त्यज वह,

कहाँ लौटकर आता है ॥

इसी तरह मेनरे दीपू तुम,

कहीं ग्राम न त्यज जाना ।

काँप उठा माँ का शंकित मन,

प्रभु ऐसा दिन ना लाना ॥

गाँव के सुनेपन से माँ की,

ममता यूँ फिर रोई थी।

छोड़ चले जैसे उसको सब,

पत्र लिखवाते खोई थी ॥

राह जोहती बेटे की माँ,

नित-नित अश्रु बहाती है ।

अब आयेगा बेटा मेरा,

सबसे यह दोहराती है ॥

पर बेटे को समय कहाँ है,

जो माँ के दर्शन कर पाता ।

माँ के जीवन भर की पीड़ा,

को आकार के वह सहलाता ॥

वर्षों से आशा में जीती,

इच्छा थी बेटा दिख जाये ।

मिल जाये यदि एक झलक भी,

चाह नहीं कुछ भी पाये ॥

माँ की ममता देखो कैसी,

व्याकुल होकर भटक रही है ।

बूंद आश की नोक सुई पर,

जैसे देखो लटक रही है ॥

बात जोहती सोच रही माँ,

घोर तिमिर में दीप दिखेगा ।

आज स्वयं मेरी किस्मत को,

ईश्वर अपने हाथ लिखेगा ॥

चर्चा उसकी गाँव-गाँव में,

दीपक वर्षों से आयेगा ।

माँ की अलसाई आँखों में,

आँसू खुशियों के लायेगा ॥

कल आयेगा बेटा तेरा,

कानों में यह बात पड़ी है ।

आज तो बूढ़ी इन आँखों में,

खुशियों की बरसात झड़ी है॥

अब तो चैन कहाँ माता को,

कहाँ पाँव धरती पर पड़ते ।

हृदय उछल-उछल नभीता,

पुत्र मिलन का चिंतन करते ॥

भीतर आती बाहर जाती,

पुलकित होती घड़ी-घड़ी है ।

आँगन में बैठी थी कब से,

अब देहरी पर मूक खड़ी है ॥

हाथ लिए पत्थर का टुकड़ा,

वह चौखट पर गणना करती ।

एक-एक रेखा को खींचे,

जैसे एक सदी को तरती ॥

दीवारों पर चढ़ती चींटी,

देख उसी से बातें करती ।

दीपू ने अब याद किया है,

कहकर लंबी श्वासें भरती ॥

तू अकेली छोटा जीवन,

बस मेरा भी हाल यही है।

सुख का घट जीवन भर रीता,

दु:खकी तो बरसात रही है ॥

कभी ढूंढती वह उसको,

जिसने यह शुभ बात कही है ।

कभी सोचती मन ही मन,

सचमुच क्या यह बात सही है ?

दीपू परसों घर आयेगा,

ऐसा तो बहु बार हुआ है ।

अब की तो यह सच हो जाये,

ईश्वर से बस यही दुआ है ॥

याद मुझे हैं वह दिन भी,

जब सीमाओं पर जूझ रहा था ।

और बटोही आता-जाता,

कुशल-क्षेम को पूछ रहा था ॥

कर्तव्य मर पर बढ़ उसने तो,

कर्मदेव को पूजा था ।

पर माँ होगी चिंता में,

क्या उसने यह सोचा था ?

मेरा घर संसार वही है,

बाकी दुनियाँ क्या जानूँ ।

मुझ असहाय को भूला है जो,

क्या उसको बेटा मानू ?

अटल सत्य यह भारत भू भी,

उसकी अपनी माता है ।

लेकिन जिसने जन्म दिया,

क्या उससे भी कुछ नाता है?

मैं कहती पूत वही,

जो माता के हित मरता हो ।

एक की सेवा में वह तत्पर,

दूजी को याद तो करता हो ॥

अब तक मैंने स्वप्न सँजोये,

कोई दिन तो पुलकित होगा ।

निर्जन उजड़े कानन में जब,

पुष्पवृंद विकसित होगा ॥

आह में उपजे गीतों ने,

चट्टान सभी पिघलाये थे ।

अरमान अधूरे थे मेरे,

फिर भी सावन बन छाये थे ॥

काँटों की बौछारों में भी,

राह न मैंने छोड़ी थी ।

तीर चुभे थे तन-मन सारे,

होली दु:ख की खेली थी ॥

घोर तिमिर में स्वयं ही चलकर,

पथ को मैंने जाना था ।

काँटों के इस कानन को ही,

अपना सब कुछ माना था ॥

कहाँ लोरियन हैं वो मेरी,

क्यों न उसे बुलाती हैं ।

भूलूँ कितनी यादों को मैं,

रह-रह मुझे रुलाती हैं ।

***

क्रांति-पर्व

क्रांति पर्व है आज उधर,

कौन यहाँ दु:ख शांत करेगा ?

सूर्य किरण सा कब सुत मेरा,

देहरी पर आलोक भरेगा ॥

इधर मातृ-मन में नित चिंता,

उधर देश में है हलचल ।

माता को लगता है दीपू,

चक्रव्यूह में है हरपल ॥

मातृभूमि की करुणा ने,

उसके दिल को दहलाया ।

मन ही मन ईश्वर से माँ की,

ममता को था सहलाया ॥

तभी दृश्य आँखों में उसकी,

बड़ा भयावह आता है ।

दीपू प्राण हथेली पर रख,

युद्ध भूमि में जाता है ॥

कैसा विकत विषम निर्जन पथ,

वीराना कैसा जंगल,

बढ़े लक्ष्य की ओर सूरमा,

वैरिवृत्त से अब दंगल ॥

निश्चयरत हैं सब सहचर,

कौन कहाँ पर अड़ा रहेगा ।

कौन देश हित शत्रु पक्ष पर,

वारों की शुरुआत करेगा ॥

हुआ धमाका तभी ज़ोर से,

मानों सर पर आया हो ।

लगा जवानों को जैसे,

शत्रु निमंत्रण लाया हो ॥

आज परीक्षा है दीपू की,

उसने मन से जान लिया ।

अरिकुल के बढ़ते कदमों को,

रोकेगा यह ठान लिया ॥

तत्काल मोर्चा लिया वहीं,

अब शुरू यहीं से जंग हुई ।

गोला-बारूद प्रलयकारी,

अमन चैन सब भंग हुई ॥

गूंज मौत की सुन-सुनकर,

नील गगन भी घुटा-घुटा ।

दृश्य भयावह देख प्रलय भी,

मानो थर-थर काँप उठा ॥

गोलाबारी तनिक रुकी तो,

रंजित धरती लहू-लुहान ।

युद्धभूमि में अगनित लाशें,

क्रंदित धरा हुई वीरान ॥

श्रूयमाण थे आह भरे स्वर,

चहुं दिशा हुंकार भरी ।

तीव्र वेदना व्याकुल तन-मन,

रणभेरी चीतकार हुई ॥

कोई आहात तड़प रहा तो,

कहीं हाथ कहीं पांव ।

मुँह खोले कोई जल माँगे,

नहीं दूर तक छांव कहीं ॥

इधर कुशलता माता पुछे,

पल-पल घर-घर में जाकर ।

दिन भर पुछे फिरने पर भी,

चैन कहाँ घर में आकर ॥

ज्ञान कहीं भूख-प्यास का,

चूल्हे में कहाँ आग जली ।

बेटा कैसा होगा मेरा,

चिंता मन में एक पाली ॥

रुचिकर लगता उसे नहीं कुछ,

सुनी नहीं क्या बात कही ।

खुली आँख तो सपनों में भी,

केवल दीपक देख रही ॥

सुबह हुई कब डोफार गुजरी,

आशा में ही शाम ढली ।

सुत चिंता में निशा गयी कब,

मुरझे मन की कली-कली ॥

माँ के प्रतिबोधन हित-शांता,

बोली ऐसा नहीं करो ।

मातृभूमि की रक्षा में रत,

वीर है तेरा धीर धरो ॥

विगत तुमुल रण में भी उसने,

दुश्मन का था किया सामना ।

स्वस्थ चित्त वह घर लौटा था,

जन-जन की है यहीं कामना ।

अर्द्धरात्रि में उस दिन जब,

सीमा से दीपू आया था ।

आनंद मना पुलकित मन से,

मैंने ही गाँव जगाया था ॥

सुनते ही दीपू से मिलने,

गाँव उमड़ कर आया था ।

रुँधे हुए कंठों से सबने,

उसे गले लगाया था ।

चरण-स्पर्श करते ही माँ के,

कैसे दीपू चीखा था ।

अश्रु धार फूट पड़ी तब,

तन-मन उसका भीगा था ॥

दृश्य विलक्षण मधुर मिलन का,

घटा भी नम हो आई थी ।

वर्णन कौन करे उस पल का,

लहर खुशी से छाई थी ॥

खुशियों की बरसात बिछी थी,

बहुरंगी थी बनी धरा ।

पुष्प वृष्टि करते सुर नभ से,

जन-मानस था हर्ष भरा ॥

वह दिन कैसा उत्सव जैसा,

कौन भला भूलेगा उसको ।

जो भी छूता जोश नया तब,

सिहरन पैदा होती उसको ॥

वीरचक्र भूषित दीपू को,

गदगद सबने चूम लिया ।

बाहों में भर निखिल ग्राम ने,

भाव भरा तब नृत्य किया ॥

दीपू ने तो अखिल विश्व में,

ज्योतित निज नाम किया ।

तेरा तो है टूक हृदय पर,

हमको भी सम्मान दिया ॥

यह भी सच है तुम भी उसको,

वर्षों से नहीं देख सकी ।

कब आएगा दीपू मेरा,

कहते-कहते यह नहीं थकी ॥

घर आने को जब भी होता,

तुझ तक तो वह पहुँच न पाता ।

युद्ध छिड़ गया है सीमा पर,

तार तभी उसको मिल जाता ॥

आज सपूत तुम्हारा फिर से,

सीमा पर है डटा हुआ ।

विजय पताका फहराने को,

समर भूमि से जूता हुआ ॥

आखिर माँ का दिल ही तो था,

समझाने पर समझ न पाया ।

दोहराती थी बात को अपनी,

क्या कोई संदेश न आया ॥

माँ कितनी चिंता में होगी,

क्या उसको यह ज्ञान नहीं ?

जीवनभर दु:ख ही झेला,

निर्मम को यह ध्यान नहीं ॥

कंटक संकुल जीवन पथ में,

कहीं छांव तो धूप कहीं ।

आजीवन झेला ही सब कुछ,

लेकिन अब सामर्थ्य नहीं ॥

कहता था स्नेहिल स्वर में,

तुम्हें न पल भर छोड़ूँगा ।

चाहे कितनी विपदा आए,

तुझसे मुख नहीं मोडूंगा ॥

जन्मभूमि के संरक्षण में,

पल-अपल शीश चढ़ाऊंगा ।

किंतु बिना दर्शन के तेरे,

क्षणभर चैन न पाऊँगा ॥

कैसी कठिन तपस्या करके,

उसको इतना बड़ा किया ।

दुग्ध-सुधा का पान करा,

स्वयं दु:खों का दर्द पिया ॥

मेरा अपना तन-मन सारा,

उस पर ही न्यौछावर था ।

कहीं नहीं था ठौर ठिकाना,

टूटा-फूटा सा घर था ।।

तार-तार थे वस्त्र विवश मन,

नग्न चरण भी फटते थे ।

कैसे दुर्दिन देखे मैंने,

ठिठुर-ठिठुर कर कटते थे ॥

दिवस-मास की बात करूँ क्या,

शुभ दिन पर्व नहीं जाना ।

फूलों की कया बात कहूँ मैं,

कांटों को अपना माना ।।

तुहिन राशि में घास फूस क्या,

दूर कहीं से पानी लाती ।

शिशिर ऋतु की शीत लहर भी,

धैर्य ना मेरा खो पाती ॥

बरछी सी उस शीत लहर में,

वसन हीन तन सीना था ।

पशुसम जीवन था मेरा,

वह जीना भी क्या जीना था ॥

अन्नकणों को लालायित,

व्याकुल मन खेतों पर जाती।

पौ-फटने से पहले जाकर,

रात पड़े घर वापस आती ।।

क्रोध कभी आता दीपू पर,

एक पाती भी डाल न सकता ।

कितना बेसुध है सुत मेरा,

तनिक ध्यान न माँ का रखता ॥

सुनती हूँ लोगों से ही मैं,

आज यहाँ कल और कहीं है ।

उसको चिंता क्या होगी,

पर मुझको पल चैन नहीं है ॥

है पहाड़ सा जीवन मेरा,

प्रतिपल उससे जूझ रही हूँ ।

कब टीके दीपू घर आयेगा,

कौन बताये पूछ रही हूँ ॥

मेरा तो क्या जीना-मरना,

बस दीपक को सम्मुख पाऊँ ।

चिंता नहीं स्वयं की अपनी,

चाहे स्वर्ग-नरक में जाऊँ ॥

किसने कष्ट दिया क्या मुझको,

नाम किसी का कोई न ले ।

मेरे जैसा जीवन भगवन,

और किसी को कभी न दे ॥

क्या अरमान सजे थे दिल में,

मन ही मन वह सोच रही थी ।

अश्रु धार से अपना तन-मन,

धोकर निज को खोज रही थी ॥

पहले तो थी एक ही चिंता,

कौन दिवस वह आयेगा ।

जिस दिन दीपू पेट स्वयं का,

भरने लायक हो जायेगा ॥

और न चिंता है अब मुझको,

केवल उसका घर बस जाये ।

अब तक के इस सूनेपन में,

हंसमुख एक वधू घर आये ॥

अगर वधू आ जाये घर में,

फिर तो मैं आराम करूँगी ।

अधिक ध्यान देकर पुजा में,

यात्रा चारों धाम करूँगी ॥

चाचा अमरसिंह एक दिवस,

जब वृद्धा से मिलने आये थे ।

सद्गुण रूपवती कन्या का,

रिश्ता वधू हित लाये थे ॥

ग्राम मरोड़ा दर्शनसिंह की,

कन्या है इक चंद्रमुखी ।

दीपक के संग जोड़ी उसकी,

खूब जमेगी रहें सुखी ॥

कुल है उत्तम शील समन्वित,

परिजन शिष्ट-नम्र-गुणवान ।

अगर कमी है किसी चीज की,

बस लोग नहीं हैं वह धनवान ॥

रूप-कान्ति लज्जा की प्रतिमा,

मृदुल प्रकृति का क्या कहना ।

निर्मल मानस भातृ-वृंद,

साकार गरीबी है बहाना ॥

दु:ख ही तो रहा भाग्य में,

पिया है आँसू का प्याला ।

कष्टों को ही झेला उसने,

कौन कष्ट जो नहीं सहे ॥

जिस घर पद-प्रक्षेप करेगी,

उसको स्वर्ग बनाएगी ।

निर्धन है पर मन अमीर है,

दुनिया को जतलायेगी ॥

यह सुन माँ के मानस पट पर,

अपना बचपन दौड़ा था ।

पूज्य पिताजी के मरते कैसे,

सबने नाता तोड़ा था ॥

नाते-रिश्ते सभी मूक थे,

अपनों ने कब अपनाया था ।

रूठ गया भगवान स्वयं जब,

कौन कहाँ कितना सच्चा ॥

वर्षों की है सतत् साधना,

अब तो ईश्वर सुन लेगा ।

जब बेटा मेरे मन की कर,

अपनी सुध-बुध भी लेगा ॥

मैं बहू को अपनी ममता,

खोई हुई मुस्कान भी दूँगी।

मुझ जैसा उसने दुख झेला,

मैं उसको हाथों में लूँगी ॥

पर देखो पागल वह दीपक,

कहता है कुछ दिन रुक जाओ ।

मैं कहती हूँ समय बीतता,

अब तो सुख के दिन लाओ ॥

जीवन प्रतिपल मारता जाता,

मुझको भी तो फर्ज निभाना।

शादी उसकी अभी नहीं की,

कहो मुझे क्या कहे जमाना॥

उससे कैसे बात करूँ मैं,

कोशिश करके हार चुकी हूँ ।

उसके मन में जाने है क्या,

सच पूछो मैं बहुत दु:खी हूँ ॥

हर दिन चिट्ठी में लिखता है,

माँ सीमा पर जूझ रहा हूँ ।

इतनी जल्दी भी क्या तुझको,

क्षमा सहित मैं पूछ रहा हूँ ।

यह जीवन की कठिन परीक्षा,

संकट की यह विषम घड़ी है ।

भारत की रक्षा का मतलब,

बात न छोटी बहुत बड़ी है ॥

फिर ललकारा आज शत्रु ने,

हम पर फिर आघात किया है ।

भारत की सीमा पर फिर से,

चाल-प्रपंच प्रपात किया है ॥

मानवता के नाते हमने,

सबको ही सम्मान दिया ॥

छल-बल करने वालों से तो,

हम निपटेंगे ठान लिया ॥

सदा शांति पथ पर चलना,

हमने ध्येय बनाया था ।

राग द्वेष हिंसा को त्यागे,

विश्व बंधुत्व जगाया था ॥

किंतु शांति पर जब विपदा के,

काले बादल मंडराये,

स्वीकार चुनौती भरके हम तो,

पौरुष से रण में आए ॥

भू पर मानवता के हित में,

भारता जग में श्रेष्ठ रहा ।

सत्य अहिंसा की खातिर नित,

इसने क्या नहीं कष्ट सहा ॥

आँख मूंदकर हम भी कब तक,

अरि की यह ललकार सुनेंगे ।

ठान लिया है तेरे सुत ने,

संघर्षों की राह चुनेंगे ॥

वैरिवृंद की भारत-भू पर,

तनिक न उंगली उठने देंगे,

प्राण समर्पित करके भी हम,

माँ का शीश न झुकने देंगे ॥

***

भविष्य-पर्व

कौन धर्म कहता है लड़कर,

मंदिर-मस्जिद को खोओ।

शस्त्रहीन पर वार करो,

षड्यंत्र करो विश को बोओ॥

माँ देखो यह संकट कैसा,

अरिपंथी सिर पर बैठा।

शुभाशीष दो जननी मुझको,

हो प्राप्त विजयी तेरा बेटा ॥

संकट का यह क्षण ताल जाये,

तभी चैन से श्वास भरूँगा ।

जैसी आज्ञा तेरी होगी,

जीवन में सब वही करूंगा ॥

पर कौन उसे समझाये यह,

दर्द जरा माँ का भी जाने।

बात सदा तेरी ही मानी,

आज तो कुछ मेरी भी माने ॥

अब तो मेरा मांझी बनता,

जीवन नैय्या डोल रही है।

यौवन में कब थी चिंतित मैं,

अब तो मेरी उम्र ढही है ॥

कैसा बीता बचपन-यौवन,

अब तक तो हर मार सही ।

यही सोच माँ के नयनों से,

अविरल अश्रुधार बही ॥

कौन से समझाये यह,

माँ का तो संसार वही है ।

शांति कहाँ माँ की किस्मत में,

जीवन से वह जूझ रही है ॥

और तभी ममता से आहत,

उस पर बेहोशी छायी।

अभी-अभी तो लोगों के संग,

वह थी बतियाती आयी ॥

गिरती माँ को देख उठाने,

एक युवा तब दौड़ा था ।

माँ का बाल न बाँका होगा,

तभी चीख कर बोला था ॥

कष्टों का चिंतन कर माँ के,

उसका भी मन व्यथित हुआ ।

आँख मूँद कर हाथ जोड़कर,

प्रभु से माँगी कुशल दुआ ॥

दीनबंधु तुम जग के स्वामी,

हम सब के ही सहारा हो ।

तुम ही रक्षक तुम ही पालक,

तुम ही तो दु:ख हारा हो ॥

फिर गोद उठाया उसने माँ को,

और लिटाया शैय्या पर था।

सिर पर चोट थी गहरी आयी,

मन पर चोट न हो डर था ॥

बातें करते तरह-तरह की,

जाने क्या कुछ सोच रहे थे ।

दौड़ा पानी लाया कोई,

कुछ दीपक को कोस रहे थे ॥

सलिल बिंदुओं के पड़ते ही,

माँ ने थोड़ा मुँह खोला ।

झकझोरा थोड़ा तो उसको,

झट उसने दीपक बोला॥

होश में आकर माथा पकड़ा,

और संभाला अपने को ।

बोली थी क्या पागल हूँ मैं,

जीवन तो है खपने को ॥

हाथ जोड़कर क्षमा माँगती,

परेशान क्यों करती हो ?

नश्वर तन है यह जानू मैं,

फिर जाने क्यों डरती हूँ ॥

आजीवन भय बना रहा,

इस काल सर्प ने डंस मारा ॥

आशंका विश बेल बढ़ी,

भीषणतम यह जग सारा ॥

कोई भी माँ अपने सुत को,

सदा गोद नहीं रखती है ।

होनी तो प्रभु के हाथों में,

ना अनहोनी टल सकती है ॥

बेटे के हर सुख-दु:ख में,

माँ अहर्निशा ही जगती है ।

विस्मृत करे जननी को सुत,

जननी भूल न सकती है ॥

इत-उत की बातों को सुनकर,

वह मन को बहलाती है ।

किन्तु जिगर के टुकड़े को वह,

क्षणभर भूल न पाती है ॥

और सोचती, याद मुझे है,

मर्द स्वयं जब बनती थी ।

ताने सुन-सुनकर लोगों के,

मेरी भृकुटी तनती थी ॥

आशा और निराशा में ही,

कैसा मेरा युग बीता ।

आँसू की रिमझिम बरसातें,

फिर भी जीवन घट रीता ॥

भूल कहाँ पाऊँगी वो दिन,

हलिया तैयार न होता था ।

सबके खेतों में हरियाली,

और अपना बंजर रोता था ॥

बंजर धरती देख-देखकर,

दिल तो रह-रह फटता था ।

अवलोकित कर घनाच्छन्न नभ,

सागर आँखों से बहता था ॥

और बिलखने-रोने पर भी,

दया किसको उस पर आई ?

रौद्ररूप धारण करके तब,

कसम वहीं उसने खाई ॥

ऐसा क्या है कार्य जगत में,

जिसको नारी नहीं कर सकती ।

दूजे पर ही क्यों निर्भर हो,

वह कष्ट स्वयं भी हर सकती ॥

नारी ही तो दुर्गा गई,

सीता सावित्री नारी ।

तीलू रामी लक्ष्मी, पन्ना

रण चंडी, देवी धारी ॥

गंगा-यमुना को ही देखो,

खूब थपेड़ी खाती हैं,

कष्ट अहर्निश जितना हो,

किसको कष्ट सुनाती हैं ?

तब कंधे पर हल को रखकर,

बैलों के संग खेत गई।

खेत जोतकर सीर चलाना,

थी जीवन की दिशा नयी ॥

बैलों के कंधे पर थपकी,

देकर उन्हें पुचकारा है ।

चल सफेदा भूरा सुन ले,

धरती ने तुम्हें पुकारा है ॥

मदद करगा कौन हमारी,

कौन हमारा है अपना ।

वर्षा में भी कष्ट झेलना,

भरी दुपहरी है तपना ॥

कष्ट निखिल तुम विस्मृत कर,

नया इतिहास बना डालो ।

तोड़ विवशताओं के घेरे,

बढ़ो चलो जीवन पालो ॥

जागा पौरुष वृषभों का तब,

छाती मानो तानी थी ।

माँ के सपने पूरे करने,

मानों मन में ठानी थी ॥

एक-एक कर खेत को जोता,

कण-कण को आबाद किया ।

कर्म निरत थे लक्ष्य प्राप्ति हित,

तनिक न था विश्राम लिया ॥

कितने अनुशासित बैलों ने,

माँ का साथ निभाया था ।

रुकने का अब नाम नहीं,

खेतों को स्वर्ग बनाया था ॥

वृषभ भी थे हर्षाये,

जब खेतों का रंग खिला ।

हरी भरी धरती मुस्काने,

पर ही माँ को चैन मिला ॥

खेत जोतकर मानो माँ ने,

जर्जर जीवन त्यागा था ।

उसका उद्यम, साहस-पौरुष,

उमंग के लिए फिर जागा था ॥

नित्य कर्मरत हस्त-चरण सब,

अतिशय कर्कश हो जाते ।

किन्तु खेत लहलहाते उसको,

नव कोमलता दे जाते ॥

बेटा गोदी साथ न कोई,

स्वयं पुरुष बन काम किये ।

मर्दाना औरत के जैसे,

लोगों ने कई नाम दिये ॥

कदम-कदम पर रही चुनौती,

विकट रहा संघर्ष कड़ा ।

नयन-युगल में रही बदरिया,

संकट हर पल रहा खड़ा ॥

जीवन के बहु प्रश्न खड़े,

विकट समय था साथ न कोई ।

ठोकर खाती गिरती उठती,

कहे किसे गुप-चुप थी रोई ॥

कष्ट भरे उसके जीवन में,

केवल इतना ही सुख था ।

राहत अब कुछ दिखती उसको,

पहले तो दु:ख ही दु:ख था ॥

दीपक ही था जीवन उसका,

कठिनाई से जिसे पढ़ाया ।

दरदों का आलिंगन देकर,

कांटों में ही उसे खिलाया ॥

उसने भी तो कैसा-कैसा,

संकट झेला लघु जीवन में ।

नई उमंगें कैसी होतीं,

ना जाना कोमल मन ने ॥

खाना तक भरपेट नहीं जब,

मिला नहीं दाना कोई ।

तब भूखे शिशु को गोद लिये,

वह सिसक-सिसक कर थी रोई ॥

पर दीपक की लगन सही थी,

विस्मित सबको करता था ।

साहस की थी कमी न उसमें,

व्यंग्यों से कब दर्ता था ॥

अपनी एक खुशी नन्ही सी,

एक दिवस घर लाया था ।

माँ मैं अव्वल आया हूँ,

हर्षित हो वह गाया था ॥

माता की आँखों में सुख के,

आँसू कैसे थे टपके ।

दीपु को फिर गले लगाने,

हाथ सहज ही थे लपके ॥

उधर गाँव में व्यंग्य बाण थे,

हंगामा था बहुत बड़ा ।

दीपू अव्वल आने पर भी,

अपराधी सा मौन खड़ा ॥

द्वेषभाव वश दुष्ट वृंद ने,

गुरुजन को थी आँख दिखायी ।

कहते थे है पक्षपात ये,

श्रेणी कैसे अव्वल आयी ?

गुरु को लगा चुनौती जैसी,

उन्हें स्वयं लोगों ने दी है ।

गुरु-निष्ठा पर प्रश्न लगाकर,

स्वाभिमान की हत्या की है ॥

दीपक पर उसके गुरुजन का,

सदा रहा विश्वास अटल था ।

उसकी प्रखर बुद्धि देखकर,

गड्गड् होता हृदय पटल था ॥

आक्षेप तीर से आहत मन में,

उठे अनल के शोले थे ।

इंगित कर उन दुष्टजनों को,

तभी गुरुजी बोले थे ॥

सत्य अरे क्यों झुठलाते तुम,

दीपक फिर से प्रश्न करेगा ।

संदेहों से निर्मित खाई,

उत्तर देकर वही भरेगा ॥

बोले यदि उत्तर देने में,

वह थोड़ा भी विफल रहेगा ।

तो गुरु की गुरुता को कोई,

इस युग में न प्रबल कहेगा ॥

अब दीपक के सम्मुख आया,

गुरु-गरिमा का प्रश्न बड़ा।

मन ही मन ईश्वर को ध्यावै,

तुहिन शैल सा अटल खड़ा ॥

रहा भरोसा उसको निज पर,

प्रश्नोत्तर वह सबका देगा ।

ईर्ष्या-पावक दग्धजनों की,

कुंठा का बदला लेगा ॥

कुछ ऐसे भी लोग दिखे,

दीपक के थे चहुं ओर खड़े ।

प्रश्न करो चाहे कोई भी,

जीतेगा वह बोल पड़े ॥

और प्रश्न जब शुरू हुये, तब-

तत्क्षण उत्तर देता था।

प्रश्न सभी हल करने पर ही,

श्वांस चैन की लेता था ॥

कैसा मेला लगा देखने,

देखो? अब क्या होता है ।

कौन यहाँ से हँसकर जाता,

कौन यहाँ अब रोता है ॥

आश्चर्य! प्रखरता देखो इसकी,

कंठ लगी पुस्तक जैसी ।

चकित हुए जन सोच-समझकर,

माया ईश्वर की कैसी ॥

ईर्ष्या से कलुषित मानस जन,

सब धीरे-धीरे खिसके थे ।

बगुले झाँक रहे थे इत-उत,

कुछ भी कहने से हिचके थे ॥

कुछ परस्पर चर्चा करते,

है तो सुंदर प्यारा सा ।

अमृत वाणी निश्छल है मन,

गाँव गली में न्यारा सा॥

रुँधे कंठ से बोले तब गुरु,

तुम क्षितिज पटल पर ध्रुव तारा ।

परम यशस्वी हो जीवन में,

निर्बाध बहो तुम जलधारा ॥

बहुत हृदय बदले थे अब तो,

दीपू को कहते प्यारा ।

जो माँ के संग काम-काज को,

इसने सार्थक कर डाला ॥

एक कहे प्रातः उठते ही,

अपने बच्चे तो पढ़ते हैं ।

किन्तु पैर इस बालक के तो,

खेत-खलिहान में बढ़ते हैं ॥

खेत-खलिहान, गौ तक भी देखी,

पढ़ने में फिर भी कैसा ।

जब भी देखो हाथ जुड़े हैं,

भोलापन जादू जैसा ॥

गाय चराना बचपन से ही,

दीपक का नित कर्म बना था ।

पशु-पक्षी-तरु सहचर उसके,

कानन भी तो खूब घना था ॥

गहन विपिन का कोना-कोना,

चप्पा-चप्पा उसने छाना ।

तृण-पादप-विहंग-वृंद को,

सदा सखा उसने माना ॥

प्रकृति की रमणीय छटा से,

तन-मन उसने जोड़ दिया ।

दुत्कारा जब दुनियां भर ने,

तरूओं ने तब गोद लिया ॥

दु:ख दर्दों से आहत जब-जब,

तन-मन उसका दहता था ।

सहलाने अरु धैर्य बंधाने,

मलय-पवन भी बहता था ॥

तरूओं की गोदी में बैठे,

अपना पाठ सुनाता था ।

कभी बाँसुरी के स्वर में,

तो कभी झूमकर गाता था ॥

वंशी के हर स्वर में झंकृत,

उसका दर्द समाया था ।

झूमे वन में इत-उत गौ संग,

बोझ लिये घर आता था ॥

माँ के सम्मुख जैसे निज को,

अपना पाठ सुनाता था ।

इष्टदेव की पुजा में ज्यों,

श्रद्धा-सुमन चढ़ाता था ॥

अनपढ़ माँ क्या जाने पर,

हूँ-हूँ-हाँ-हाँ करती थी ।

पूत सपूत हो मेरा जग में,

बस इतना ही कहती थी ।।

हँसकर बोला था दीपू तब,

तुम से ही शिक्षा पायी है ।

परोपकार ही ध्येय रहेगा,

कसम तुम्हारी खाई है ॥

एक यही अभिलाषा है मेरी,

मैं कुछ ऐसा कर पाऊँ ।

नाम अमर हो जग में तेरा,

वो दिन जल्दी से ले आऊँ ॥

चाह यही बस संघर्षों का,

कुछ भी तो परिणाम मिले ।

हो खुशियाँ आँगन में तेरे,

चेहरे पर मुस्कान खिले ॥

और नहीं तो दीन-दु:खी,

घबरा कर यूँ दम तोड़ेंगे ।

ग्लानि-ग्रस्त जीवन में,

कष्टों से मुख मोड़ेंगे ॥

इधर सोचती माँ मन ही मन,

कैसी विपदा ने घेरा ।

अचल खड़ी थी हिमगिरि के सम,

तनिक न विचलित मन मेरा ॥

बचपन में चल बसे पिता,

बस तब से विवश अनाथ हुए ।

पग-पग पर ठोकर खा-खाकर,

मैंने थे विष घूँट पिये ॥

कुछ कुत्सित लोगों ने तो,

दामन पर तक दाग लगाये थे ।

दिया नहीं सहयोग कष्ट में,

जुल्म खूब बरसाये थे ॥

निस्सहाय होकर भी मैंने,

सारे धर्म निभाये थे ।

ईश्वर की छाया में मैंने,

सारे दु:ख विसराये थे ॥

कब दिन गुजारा रात हुई कब,

न वर्ष मास मैंने जाना ।

बेटा दो आखर पढ़ जाये,

बस इसको जीवन माना ॥

इस जग से पुछो जिसने,

मुझको क्या-क्या नाम दिये ।

पर नारी अबला न रहे,

मैंने वो हर काम किये॥

फिर भी इस दीपू को देखो,

मुझ पर इसको तरस न आता ।

राह देखती इसकी पल-पल,

सूरत तक भी नहीं दिखाता ॥

इंतजार में बेटे की अब,

बैठे-बैठे खो जाती हूँ ।

दिन ही क्या कब साँझ ढली,

मैं कुछ भी जान न पाती हूँ ॥

उमड़ी आँधी जब रातों की,

शंकाओं ने फिर घेरा ।

कहीं भटकता भूखा-प्यासा,

रण में सुत होगा मेरा ॥

अंखियों से फिर धार बही,

मुख-मण्डल था मुरझाया ।

ऐसे भीगा तन जैसे,

सागर-बादल बन बरसाया ॥

और लगा तब मन घबराने,

आँखें भी पथराई थी ।

जैसे जीवन-दीप बुझाने,

मृत्यु निकट ही आई थी ॥

लोगों ने पकड़ा पगली हो,

जल्दी बेटा आयेगा ।

कंपित स्वर में प्रत्युत्तर था,

मुश्किल मुझको पायेगा ॥

इतना कह बेहोश हुई माँ,

आशा को उसने छोड़ा ।

और तड़पने लगी कि मानों,

जग से ही नाता तोड़ा ॥

ढांढस का भी असर न कोई,

अब माता पर होता था ।

देख दशा माता की ऐसी,

धैर्य सभी का खोता था ॥

क्षणिक चेतना आने पर वह,

अन्तः से कुछ बोली थी ।

पुत्र मोह का राग अलापे,

सन्निपात में खोयी थी ॥

कौन कहेगा ऐसा कब तक,

माँ एकाकी दम तोड़ेगी ।

इतनी सारी आशाओं को,

मरने से पहले छोड़ेगी ॥

मरते दम तक भी माता के,

मन-मयूर ने चैन न पाया ।

हाय तरसती प्यासी आँखें,

किन्तु तनय घर पहुँच न पाया ॥

ममता से है व्यूहित यह,

करुणा से भरी कहानी ।

अबला भी सबला बन जाती,

दृग-पथ में लेकर पानी ॥

***


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में रमेश पोखरियाल निशंक की रचनाएँ